सोज़-ए-दिल शम-ए-तपाँ हो जैसे आग चूल्हे में निहाँ हो जैसे कैसी अफ़्सुर्दा बहार आई है अब भी गुलशन में ख़िज़ाँ हो जैसे मुझ पे महफ़िल में तबस्सुम की नज़र ब-तुफ़ैल-ए-दिगराँ हो जैसे आप की चश्म-ए-इनायत का यक़ीं दिल-फ़रेब एक गुमाँ हो जैसे यूँ वो सुनते हैं कहानी मेरी इक हदीस-ए-दिगराँ हो जैसे चौंक उठे हम तो क़यामत होगी ज़िंदगी ख़्वाब-ए-गिराँ हो जैसे दिल से इक आह तो निकली थी मगर शम-ए-कुश्ता का धुआँ हो जैसे सामने उन के ये आलम है 'रज़ा' एक आलम निगराँ हो जैसे