सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए अब धूप सर पे आ गई है आँख खोलिए याद आ गया जो अपना गरेबाँ बहार में दामन से मुँह लपेट लिया और रो लिए अब और क्या करें तिरे तर्क-ए-सितम के बा'द ख़ुद अपने दिल में आप ही नश्तर चुभो लिए परवाना-ए-रिहाई-ए-ख़ामा तो मिल गया लेकिन हुज़ूर अब दर-ए-ज़िंदाँ भी खोलिए अपने लिए तअय्युन-ए-मंज़िल कोई नहीं जो भीड़ जिस तरफ़ को चली साथ हो लिए थी नागवार-ए-तब्अ तुझे सादगी-ए-इश्क़ ले आज हम ने पलकों में मोती पिरो लिए हर इक ब-ज़ोम-ए-ख़्वेश जहाँ हो सुख़न-शनास बेहतर ये है 'सबा' कि वहाँ कुछ न बोलिए