सुब्ह को निकला था गरचे कर्र-ओ-फ़र्र से आफ़्ताब मुँह फिराया हो ख़जिल उस इश्वा-गर से आफ़्ताब आसमाँ पर गर गिरे बर्क़-ए-निगाह-ए-तुंद-बार अब्र में रह जाए छुप कर उस के डर से आफ़्ताब गर नक़ाब अपनी उलट दे वो रुख़-ए-ताबिंदा से गिर पड़े बेताब हो कर चर्ख़ पर से आफ़्ताब दिल में जब से देखता है वो तिरी तस्वीर को नूर बरसाता है अपनी चश्म-ए-तर से आफ़्ताब हैबत-ए-शाह-ए-दकन से 'शाद' ये शोहरा है आज काँपता निकला करे जेब-ए-सहर से आफ़्ताब