सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे तुझ से हम-आग़ोश हो कर मुन्तशर हो जाएँगे धूप सहरा तन बरहना ख़्वाहिशें यादों के खेत शाम आते ही ग़ुबार-ए-रह-गुज़र हो जाएँगे दश्त-ए-तन्हाई में जीने का सलीक़ा सीखिए ये शिकस्ता बाम-ओ-दर भी हम-सफ़र हो जाएँगे शोरिश-ए-दुनिया को आहिस्ता-रवी का हुक्म हो नज़्र-ए-ख़ैर-ओ-शर तिरे शोरीदा-सर हो जाएँगे ये जो हैं दो-चार शुरफ़ा-ए-अवध अख़्तर-शनास कुछ दिनों में ये भी औराक़-ए-दीगर हो जाएँगे