सुब्ह-ए-महशर भी गवारा नहीं फ़ुर्क़त मेरी मुझ से रह रह के लिपट जाती है तुर्बत में रंज देता है मज़ा वो है तबीअत मेरी चैन लिखती है मिरे वास्ते क़िस्मत मेरी आ के ठुकरा गए किस नाज़ से तुर्बत मेरी न खुली आँख मिरी हाए री ग़फ़लत मेरी कोई आता है कहीं ऐसे सियह-ख़ाने में मेरे घर का है उजाला शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी सदक़े ऐ तमकनत-ए-नाज़ दिखा दे मुझ को हाए वो आँख न हो जिस में मुरव्वत मेरी क्या निडर हो के शब-ए-वस्ल वो आ बैठे हैं जानते हैं कि बचा लेगी नज़ाकत मेरी जितने दिल ख़ाक हुए रोज़-ए-अज़ल से अब तक आज उन सब का निशाँ देती है तुर्बत मेरी मय-ओ-माशूक़ नहीं आप में रहने देते बा'द-ए-तौबा भी बदल जाती है निय्यत मेरी इस तरह हश्र में आया हूँ लहद से उठ कर कि फ़रिश्ते नहीं पहचानते सूरत मेरी हश्र में पेश-ए-नज़र होंगे बुतान-ए-काफ़िर मुझे डर है न बिगड़ जाए तबीअत मेरी धोके देती है बुरी तरह ये लोगों को 'रियाज़' मिलती-जुलती है बहुत ख़िज़्र से सूरत मेरी