सू-ए-दरिया ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया मोतियों की आबरू पर आज पानी फिर गया सूइयाँ सी कुछ दिल-ए-वहशी में फिर चुभने लगीं ठीक होने को लिबास-ए-अर्ग़वानी फिर गया हथकड़ी भारी है मेरे हाथ की आज ऐ जुनूँ दस्त-ए-जानाँ का कहीं छल्ला निशानी फिर गया ज़ोर पैदा कर कि पहुँचे जेब तक दस्त-ए-जुनूँ अब तो मौसम ऐ वफ़ूर-ए-ना-तवानी फिर गया सरफ़रोशान-ए-मोहब्बत से न होगी आँख चार मुँह जो उस की तेग़ का ऐ सख़्त-जानी फिर गया कहते हो हम आज मुल्क-ए-हुस्न के हैं बादशाह क्या हुमा बाला-ए-सर ऐ यार-ए-जानी फिर गया क्यूँ कबूतर के एवज़ हुदहुद न लाया ख़त्त-ए-शौक़ इस ख़ता पर मुझ से वो बिल्क़ीस-ए-सानी फिर गया बोसा कैसा इक लब-ए-शीरीं से गाली भी न दी आज फिर उम्मीद-वार-ए-मेहरबानी फिर गया ऐ ज़ईफ़ी साया सर पर से गया धूप आ गई फ़स्ल बदली आफ़्ताब-ए-ज़िंदगानी फिर गया गिर पड़े आँसू उरूज-ए-माह-ए-कामिल देख कर मिरी नज़रों में तिरा अहद-ए-जवानी फिर गया