सू-ए-मक़्तल कि पए सैर-ए-चमन जाते हैं अहल-ए-दिल जाम-ब-कफ़ सर-ब-कफ़न जाते हैं आ गई फ़स्ल-ए-जुनूँ कुछ तो करो दीवानो अब्र सहरा की तरफ़ साया-फ़गन जाते हैं उस को देखा नहीं तुम ने कि यही कूचा ओ राह शाख़-ए-गुल शोख़ी-ए-रफ़्तार से बन जाते हैं वो अगर बात न पूछे तो करें क्या हम भी आप ही रूठते हैं आप ही मन जाते हैं बुलबुलो अपनी नवा फ़ैज़ है उन आँखों का जिन से हम सीखने अंदाज़-ए-सुख़न जाते हैं जो ठहरती तो ज़रा चलते सबा के हमराह यूँ भी हम रोज़ कहाँ सू-ए-चमन जाते हैं लुट गया क़ाफ़िला-ए-अहल-ए-जुनूँ भी शायद लोग हाथों में लिए तार-ए-रसन जाते हैं रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या 'मजरूह' हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं
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