सुकून-ए-दिल तो कहाँ राहत-ए-नज़र भी नहीं ये कैसी बज़्म है जिस में तिरा गुज़र भी नहीं भटक रहा है ज़माना घने अँधेरे में वो रात है जिसे अंदेशा-ए-सहर भी नहीं न जाने कौन सी मंज़िल को ले चले हम को वो हम-सफ़र जो हक़ीक़त में हम-सफ़र भी नहीं तिरी निगाह का दिल को यक़ीं सा है वर्ना सुनी है बात कुछ ऐसी कि मो'तबर भी नहीं