सूना सूना आँगन है और बाम-ओ-दर ख़ामोश किस से गुफ़्तुगू कीजे हो जो घर का घर ख़ामोश शम्अ' की तरह कोई ग़म-गुसार क्या होगा साथ साथ चलती है रात रात भर ख़ामोश कुछ तो मस्लहत होगी जो ज़बाँ नहीं खुलती वर्ना तेरी महफ़िल में हम और इस क़दर ख़ामोश है सुकूत का आलम काएनात पर तारी जब से हम इधर चुप हैं और वो उधर ख़ामोश शहर-ए-दिल पे छाए हैं दश्त-ए-ग़म के सन्नाटे कितनी आरज़ूएँ हैं सब की सब मगर ख़ामोश कारवाँ को लूटा है किस ने ये बताए कौन चश्म-ए-राहज़न हैराँ दस्त-ए-राहबर ख़ामोश जौर-हा-ए-याराँ के सिलसिले न बढ़ जाएँ और भी रहे 'ख़ावर' तुम यूँही अगर ख़ामोश