सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ उदासियों में भी ख़ुद को सँवार लेती हूँ मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान जहाँ से मैं ये उदासी उधार लेती हूँ कभी कभी मुझे ख़ुद पर यक़ीं नहीं होता कभी कभी मैं ख़ुदा को पुकार लेती हूँ जनम जनम की थकावट है मेरे सीने में जिसे मैं अपने सुख़न में उतार लेती हूँ मैं अब भी याद तो करती हूँ आसिमा उस को उसी का ग़म है जिसे मैं सहार लेती हूँ