सुने गए हैं रफ़ू-गर ये गुफ़्तुगू करते हम उस जले हुए दामन में क्या रफ़ू करते अगर हम उन से ग़म-ए-दिल की आरज़ू करते वो ला के आइना-ए-हश्र रू-ब-रू करते अदा-शनास था साक़ी तो फिर तजाहुल क्यों उठे हैं बज़्म से कितने सुबू सुबू करते खड़े हुए हैं ख़ुदी के बसीत सहरा में निकलते इस से तो फिर तेरी जुस्तुजू करते कभी नसीब न होती ये दर्द की लज़्ज़त अगर ख़राब हम अश्कों की आबरू करते 'शमीम' काश इसी हाल में गुज़र जाती वो हम को ढूँडते हम उन की जुस्तुजू करते