सुनिए पयाम-ए-शम्स-ओ-क़मर रक़्स कीजिए इस दाएरे में शाम-ओ-सहर रक़्स कीजिए पाकीज़गी फ़ज़ा की तरन्नुम नसीम का क्या चाँदनी है पिछले पहर रक़्स कीजिए ताली बजा रहे हैं शगूफ़े नए नए आवाज़ दे रहे हैं शजर रक़्स कीजिए क्या छुप-छुपा के छत के तले नाच में मज़ा उर्यां निकल के दर से बदर रक़्स कीजिए जी चाहता है आज फ़रिश्तों से भी कहूँ पर्वाज़ क्या है खींच के पर रक़्स कीजिए फ़ुर्सत नहीं फ़क़ीह को ज़र की तलाश से मुतलक़ न कीजे ख़ौफ़-ओ-ख़तर रक़्स कीजिए गर इज़्तिरार क़ाबिल-ए-ताज़ीर है तो हो है अपने बस में ख़ैर न शर रक़्स कीजिए दोज़ख़ जला के दर्द का और आगही की आग दोनों के दरमियान उतर रक़्स कीजिए तन्हाइयों के गीत न सब को सुनाइए पाँव मिला के जोड़ के सर रक़्स कीजिए मत पूछिए कि प्यार का अंजाम क्या हुआ प्यारा चला गया है किधर रक़्स कीजिए मानिंद-ए-क़ैस रेत न सहरा की छानिए किस को मिली है किस की ख़बर रक़्स कीजिए कीजे तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ को तेज़-तर मुज़्मर है इस में सैर-ओ-सफ़र रक़्स कीजिए 'सय्यद' क़रार को तो पड़ी है तमाम उम्र इक और भी ग़ज़ल है अगर रक़्स कीजिए