सुनो तो ज़रा ये आख़िर-ए-शब नफ़ीर-ए-दुआ अजीब सी है ज़मान-ओ-मकाँ पे छाई हुई जुनूँ की नवा अजीब सी है निज़ाम नया शुऊ'र नया मिसाल-ए-अता अजीब सी है सवाल पे हाथ काटते हैं तलब की सज़ा अजीब सी है जिगर पे हर इक सिनान-ए-नज़र जो सहते हुए गुज़र गए हम जवाब में अब हरीफ़ों की शिकस्त-ए-अना अजीब सी है ये पास-ए-बहार अश्क पिए जो दर्द बढ़ा तो शे'र कहे बताएँ किसे हमारी तबाहियों की अदा अजीब सी है उतर गए चेहरे गर्दिशों के लरज़ गई जान फ़ासलों की शिकस्ता दिलों के क़ाफ़िले में फ़ुग़ान-ए-दरा अजीब सी है ज़माने के सर्द-ओ-गर्म से कब मिली है अमाँ मुझे 'कौसर' वजूद-ए-नफ़स को बख़्शी हुई करम की क़बा अजीब सी है