सूरज की तरह क़रिया-ए-महताब में आया रात एक अजब शख़्स मिरे ख़्वाब में आया क्या लहर थी जो मुझ को लगा आई किनारे किस मौज से फिर हल्क़ा-ए-गिर्दाब में आया ये शहर तो सहराओं की सरहद पे बसा था कैसे ये ख़राबा कफ़-ए-सैलाब में आया इक याद से रौशन हुए दीवार-ओ-दर-ओ-बाम ख़म एक नई तरह का मेहराब में आया पहले तो धनक-रंग में डूबा उफ़ुक़-ए-जाँ फिर मंज़र-ए-हिज्राँ भी तब-ओ-ताब में आया इक शख़्स कि यकता था दरीदा-दहनी में ज़िक्र उस का मगर प्यार से अहबाब में आया