सूरज सुर्ख़ दिशा में उतरा दिन डूबा दरिया में उतरा होटल सब्ज़ा लॉन लब-ए-जू घिरता अब्र घटा में उतरा अट कर गर्द-ए-मआ'श से उभरे फट कर दर्द दुआ में उतरा शहर-पनाह की गलियाँ जागीं चाँद जो महल-सरा में उतरा सोए ओढ़ के मक़्तल को हम दश्त-ए-बला सहरा में उतरा बाम पे शाम हुई गोरी को अंग का रंग अदा में उतरा शाख़ झुकी चेहरे के आगे टूट के फूल क़बा में उतरा मरे कभी बे-नाम ही हम तुम क़िस्सा कभी कथा में उतरा धूप ही धूप थी इस के मुख पर रूप ही रूप हवा में उतरा