सुर्ख़ आँखें हैं ज़र्द मंज़र है ज़िंदगी रेत का समुंदर है सूरत-ए-हाल पूछ लो हम से दिल है ग़मगीन आँख भी तर है कैसे मंज़िल न हो क़रीब मिरे जब मिरा ही शुऊ'र रहबर है मैं ये ख़ुद भी नहीं समझ पाया क़र्ज़ किस की नज़र का मुझ पर है मैं अँधेरों में खो नहीं सकता इश्क़ से दिल मिरा मुनव्वर है रू-ब-रू आइने के मत जाना हाथ में आइने के पत्थर है एक तूफ़ाँ है उस की ख़ामोशी ज़िंदगी उस की इक समुंदर है रब सलामत रखे ख़ुदी मेरी ये इमारत भी आज जर्जर है जिस का होता नहीं दिलों में क़ियाम आदमी वो 'अदीब' बे-घर है