ता-ब-अफ़्लाक अगर अपनी रसाई होती कुछ तअज्जुब नहीं क़ब्ज़े में ख़ुदाई होती नासेहा हम को तबीअ'त पे जो क़ाबू होता दिल सी दौलत सर-ए-बाज़ार गँवाई होती मौत ने मुझ को फ़रामोश किया ख़ूब किया आप ने आँख न ऐ काश चुराई होती मेरी मिट्टी को ठिकाने जो लगाया था तुझे सू-ए-बुत-ख़ाना ये कम-बख़्त उड़ाई होती सब को तुम साग़र-ए-ज़र्रीं में पिलाते हो शराब हमें तलछट ही शिकोरे में पिलाई होती रात दिन शैख़-ए-हरम कलिमा बुतों का पढ़ता बुत-कदे में जो कभी उस की रसाई होती भूलते हम न कभी बाद-ए-सबा का एहसाँ काकुल-ए-यार की ख़ुशबू जो सुँघाई होती पूछता मैं भी मिज़ाज आप का शोख़ी से यूँही चोट दिल की जो कहीं आप ने खाई होती था अज़ल से दिल-ए-'आज़म' में कोई और मकीं उस में क्या इश्क़ हसीनाँ की समाई होती