ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है By Ghazal << मुझ को कभी भी उन से शिकाय... मुश्किलों की यही हैं बड़ी... >> ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है कोई इस शहर में तलवार लिए फिरता है बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं और मुझ को सर-ए-बाज़ार लिए फिरता है जिस्म के साथ तो रहता हूँ मैं इस पार मगर रूह के साथ वो उस पार लिए फिरता है Share on: