तड़प उठता हूँ यादों से लिपट कर शाम होते ही मुझे डसता है मेरा सर्द बिस्तर शाम होते ही परिंदे आशियानों से पनाहें माँगा करते हैं बदलने लगता है आँखों का मंज़र शाम होते ही हर इक लम्हा नई यलग़ार का ख़तरा सताता है मुख़ालिफ़ सम्त से आते हैं लश्कर शाम होते ही मैं बूढ़ा हो चला हूँ फिर भी माँ ताकीद करती है मिरे बेटे न जाना घर से बाहर शाम होते ही ख़ुदाया ख़ैर आख़िर कौन सी बस्ती में आ पहुँचा पड़ोसी फेंकने लगते हैं पत्थर शाम होते ही न जाने इन दिनों ख़ामोश सा रहता है क्यूँ दिन में उबल पड़ता है जज़्बों का समुंदर शाम होते ही उजाले में किसी सूरत सफ़र तो कट ही जाता है मियाँ 'राशिद' मगर लगती है ठोकर शाम होते ही