तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ तिरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह ये और बात कि अब भी तुझे सुनाई न दूँ ख़ुद अपने आप को परखा तो ये नदामत है कि अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूँ मिरी बक़ा ही मिरी ख़्वाहिश-ए-गुनाह में है मैं ज़िंदगी को कभी ज़हर-ए-पारसाई न दूँ जो ठन गई है तो यारी पे हर्फ़ क्यूँ आए हरीफ़-ए-जाँ को कभी तान-ए-आश्नाई न दूँ मुझे भी ढूँड कभी महव-ए-आइना-दारी मैं तेरा अक्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूँ ये हौसला भी बड़ी बात है शिकस्त के बा'द कि दूसरों को तो इल्ज़ाम-ए-ना-रसाई न दूँ 'फ़राज़' दौलत-ए-दिल है मता-ए-महरूमी मैं जाम-ए-जम के एवज़ कासा-ए-गदाई न दूँ