तफ़क्कुरात-ए-ज़माना से हो के बेगाने ये किस ख़याल में उलझे हुए हैं दीवाने हर एक हँसता है लेकिन ये कोई क्या जाने ये बन गए कि बनाए गए हैं दीवाने निगाह-ए-इश्क़ में शाह-ओ-गदा बराबर हैं निगाह-ए-इश्क़ कोई इम्तियाज़ क्या जाने किसी के उठने से सूनी न होगी बज़्म कोई बहार-ए-शम्अ' सलामत हज़ार परवाने वही जहाँ के नशेब-ओ-फ़राज़ को समझे चले जो राह-ए-मोहब्बत की ठोकरें खाने यहाँ ख़ुशी तो नहीं है मगर पए तस्कीं ग़मों का नाम ख़ुशी रख लिया है दुनिया ने ये जानता हूँ कि तय कर रहा हूँ राह-ए-हयात कहाँ पे है मिरी मंज़िल उसे ख़ुदा जाने फ़ना है सब को इन आबादियों पे नाज़ न कर ज़बान-ए-हाल से ये कह रहे हैं परवाने जो अपने हाथ से कोई पिला दे ऐ 'शारिब' उस एक जाम पे सदक़े हज़ार पैमाने