तक़दीर जब मुआविन-ए-तदबीर हो गई मिट्टी पे की निगाह तो इक्सीर हो गई दिल जाँ निसार-ए-मय है ज़बाँ ताइब-ए-शराब इस कशमकश में रूह की ताज़ीर हो गई छींटें जो ख़ूँ की दामन-ए-क़ातिल में रह गईं महशर में मेरे क़ल्ब की तफ़्सीर हो गई या क़त्ल कीजिए मुझे या बख़्श दीजिए अब हो गई हुज़ूर जो तक़्सीर हो गई शबनम ओढ़ी गुलों से मिरा नक़्शा खिंच गया मुरझा गई कली मिरी तस्वीर हो गई ज़िंदानियान-ए-काकुल-ए-हस्ती किधर को जाएँ इक ज़ुल्फ़ सब के पाँव की ज़ंजीर हो गई मैं कह चला था दावर-ए-महशर से हाल-ए-दिल इक सुर्मगीं निगाह गुलू-गीर हो गई बस थम गया सफ़ीर-ए-अमल कह के या नसीब जिस जा पे ख़त्म मंज़िल-ए-तदबीर हो गई तोड़ा है दम अभी अभी बीमार-ए-हिज्र ने आए मगर हुज़ूर को ताख़ीर हो गई जब अपने आप पर हमें क़ाबू मिला 'रवाँ' आसान राज़-ए-दहर की तफ़्सीर हो गई