ताख़ीर आ पड़ी जो बदन के ज़ुहूर में हम ने ख़लाएँ घोल दीं बैनस्सुतूर में मिट्टी को अपनी रात में तहलील कर दिया इक सर-ज़मीं समेट ली तारों के नूर में मुमकिन है तर्क ही करे वो हश्र का ख़याल दिल का सुकूत फूँक के आया हूँ सूर में इक नुक़्ता-ए-ग़याब में ढलने लगे फ़लक भटका हूँ इतनी दूर भी तहतुश-शुऊर में तजरीद-ए-जान की इक नई मंतिक़ हूँ मैं 'रियाज़' पोशीदा हो रहा हूँ ख़ुद अपने हुज़ूर में