तख़्ता-ए-मश्क़ बनूँ जाँ-ब-सिपर हो जाऊँ तू बता कौन सा चेहरा लूँ किधर हो जाऊँ बे-ज़बानों की रिफ़ाक़त भी मयस्सर कर ली बोलिए आप का मंज़ूर-ए-नज़र हो जाऊँ राह तकते हुए आँखें तो अधूरी ठहरीं कहिए सरकार कि अब राहगुज़र हो जाऊँ मेरी आवाज़ से हिम्मत को जिला मिलती है बे-कसी टूट पड़े मैं कि जिधर हो जाऊँ ख़ैर ठहरी है ज़माने के मुआफ़िक़ होना होने को जी नहीं चाहे है मगर हो जाऊँ जो बग़ावत पे वईदों से निखर जाता है 'फ़रहत'-ए-तल्ख़-नवा तेशा-नज़र हो जाऊँ