टकरा रही हैं तेज़ हवाएँ चटान से बाहर न जाओ अपने शिकस्ता मकान से वो रात भर चराग़ की लौ देखता रहा इम्काँ तराशता है जो अपने गुमान से अज़्म-ए-सफ़र है धूप का सहरा है और मैं दरिया तो साथ छोड़ गया दरमियान से वो मौसम-ए-ख़िज़ाँ की थकन ही में जल गए बाहर खिले जो फूल तिरे साएबान से इक उम्र हो गई है कि डरता रहा हूँ मैं रौशन चराग़ से कभी अंधे मकान से गहरे समुंदरों में सितारा न था कोई साहिल की शाम मिल न सकी बादबान से दीवार आइने की है शीशे के बाम-ओ-दर लेकिन ग़ुबार उठता है मेरे मकान से