टकराने से जो आग उठी थी उसी का हो शायद कहीं पे नक़्श तिरी रौशनी का हो लाखों तरह की ज़िंदगी आबाद है यहाँ हर मसअला ज़रूरी नहीं आदमी का हो नागाह उस बदन से लिपटता हूँ बार बार शायद यही इलाज मिरी बेकली का हो हर चीज़ से ज़ियादा है निस्बत की अहमियत पत्थर भी कोई मारे तो उस की गली का हो शिरकत ज़रूरी होती है तकमील के लिए मैं भी किसी का हो गया तू भी किसी का हो साक़ी-गरी तो आती है सब को ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ होना है इम्तिहान तो फिर दिलबरी का हो