ताल सोचें न समुंदर सोचें सिर्फ़ इक मौज-ए-मुनव्वर सोचें शोर बाज़ार से हट कर बैठें अपने अंदर जो है महशर सोचें पस-ए-दर निकले हिक़ारत कि पसंद दस्तकें दी हैं तो क्यूँ कर सोचें हम भी साकित हैं जुमूद उन पर भी ख़ुद को बुत समझें कि आज़र सोचें हम कहाँ और कहाँ चोर-क़दम शह कोई पाएँ तो खुल कर सोचें ख़ूब है ये भी वतीरा 'एजाज़' ख़ुश्क ज़ेहनों में रहें तर सोचें