तलख़ीस के बदन में तफ़्सीर बोलती है तकमील-ए-आरज़ू में तदबीर बोलती है ये मो'जिज़ा भी देखा हम ने कमाल-ए-फ़न का चुप हो अगर मुसव्विर तस्वीर बोलती है तज़ईन-ए-अंजुमन के हम ने जो ख़्वाब देखे अब किर्चियों में उन की ता'बीर बोलती है वो लब-कुशा हो जिस दम लगता है हर किसी को हर लफ़्ज़ में उसी की तक़दीर बोलती है बनता है मुफ़लिसों का वो ग़म-गुसार लेकिन अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू में जागीर बोलती है जज़्बों पे लाख कोई पाबंदियाँ लगा दे इज़हार में उन्ही की तासीर बोलती है ख़ामोश हैं क़फ़स के दीवार-ओ-दर तो क्या है टकरा के हर क़दम से ज़ंजीर बोलती है जब आगही का अज़दर डसता है आदमी को मफ़्हूम नाचते हैं तहरीर बोलती है