तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं दिल में है वर्ना वो बिजली जो सर-ए-तूर नहीं दिल से नज़दीक हैं आँखों से भी कुछ दूर नहीं मगर इस पे भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं हम को परवाना ओ बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़ गुल में वो रंग नहीं शम्अ में वो नूर नहीं ख़ल्वत-ए-दिल न सही कूचा-ए-शहरग ही सही पास रह कर न सही आप से कुछ दूर नहीं ज़ौक़-ए-पाबंद-ए-वफ़ा क्यूँ रहे महरूम-ए-जफ़ा इश्क़ मजबूर सही हुस्न तो मजबूर नहीं ताबिश-ए-हुस्न ने जब डाल दिए हों पर्दे मुमकिन आँखों से इलाज-ए-दिल-ए-रंजूर नहीं लाओ मय-ख़ाने ही में काट न दें इतनी रात मस्जिदें हो गईं मामूर ये मामूर नहीं छेड़ दे साज़-ए-अनल-हक़ जो दोबारा सर-ए-दार बज़्म-ए-रिंदाँ में अब ऐसा कोई मंसूर नहीं कभी कैसे हो 'सफ़ी' पूछ तो लेता कोई दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं