तमाम शहर की ख़ातिर चमन से आते हैं हमारे फूल किसी के बदन से आते हैं हम उन लबों से लगा कर रहेंगे लब अपने सुख़न तमाम उसी अंजुमन से आते हैं पड़ा हूँ उस के बदन के बिदेस में कब से मैं क्या पढ़ूँ जो ये नामे वतन से आते हैं कि जैसे तपता तवा और बूँद पानी की ज़मीं पे हम भी उसी तरह छन से आते हैं हम आप-बीती सुनाते हैं सादा लफ़्ज़ों में ये सारे शेर हमें तर्क-ए-फ़न से आते हैं ज़माने-भर से है 'एहसास-जी' की चाल अलग हर एक बज़्म में वो बद-चलन से आते हैं