तमाम शहर में कोई भी रू-शनास न था ख़ता यही थी कि लहजा पुर-इल्तिमास न था फिर उस ने किस लिए रक्खे हवा पे अपने क़दम वो गर्द गर्द था सूखे लबों की प्यास न था मैं अपने आप लुटा आसमाँ की ख़्वाहिश से ज़मीं का चेहरा मिरी नींद से उदास न था ये किस ने आँख को नंगा किया है दरिया में महकती रेत पे कोई भी बे-लिबास न था उदास हो के सजा कार्नस के पत्थर पर ज़मीं पे टूट के गिरता मैं वो गिलास न था