तमाम रंग हवा हो गए कहानी से ज़मीन काँप रही है उतरते पानी से वो इक परिंदा-ए-आतिश जो आग पीता था असीर हो गया अपनी ही ख़ुश-बयानी से शिकार छुप गए अपनी पनाह-गाहों में कमान टूट गई उस की खींचा-तानी से जो खेल खेल रहे थे हवाओं की शह पर वो खेल ख़त्म हुआ मर्ग-ए-ना-गहानी से ख़ुद अपने आप से लर्ज़ां रही उलझती रही उठा न बार-ए-गराँ रात की जवानी से वरक़ वरक़ पे चला तेशा-ए-क़लम लेकिन न कोई लफ़्ज़ जुदा हो सका मआनी से