तमाम शहर को जो सच है वो बताऊँगा फिर उस की जितनी भी क़ीमत हुई चुकाऊँगा मैं हिज्र वालों का इक क़ाफ़िला बनाऊँगा तुम्हारे बा'द भी जी कर तुम्हें दिखाऊँगा जिन्हों ने मिल के मिरे हाथ काट डाले हैं उन्हें ये डर था कि मैं आइना बनाऊँगा ये पहला इश्क़ भुलाना कठिन तो है लेकिन कभी तू आना तुझे मैं दुआ सिखाऊँगा तुम्हारी जीत को बस देखने की ख़्वाहिश है सो हक़ पे हो के भी आख़िर में हार जाऊँगा उस एक बात में कितनी बड़ी अज़िय्यत थी जब उस ने इतना कहा सोच कर बताऊँगा इसी सबब से मैं लोगों से अब नहीं मिलता 'सग़ीर' उस ने कहा था गले लगाऊँगा