तमाम शहर में हम हाथ-पाँव मार आए सुकून ढूँडने निकले थे सोगवार आए चमन के काँटों से कर ली है दिल-लगी हम ने ख़िज़ाँ चमन में रहे चाहे अब बहार आए खड़ी थी रस्ते में दीवार-ए-मुफ़्लिसी मेरे कभी जो भूले से लम्हात-ए-वस्ल-ए-यार आए निज़ाम तेरे चमन का अजीब है कितना जो हक़-परस्त थे हिस्से में उन के दार आए