तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे आप जब और मिरे और नगीचे होंगे आइना पूछेगा जब रात कहाँ थे साहब अपनी बाँहों में वो अपने ही को भींचे होंगे जिस तरफ़ चाहिएगा आप चले जाइएगा सामने चाँद के हम आँखों को मीचे होंगे आज फिर गुज़़रेंगे क़ातिल की गली से हम लोग आज फिर बंद मकानों के दरीचे होंगे जिस की हर शाख़ पे राधाएँ मचलती होंगी देखना कृष्ण उसी पेड़ के नीचे होंगे इक मकाँ और भी है शीश-महल के लोगो जिस में दहलीज़ न आँगन न दरीचे होंगे तेरा दम है तो बहारों को सुकूँ है 'बेकल' फिर तिरे बा'द कहाँ बाग़ बग़ीचे होंगे