तरब से हो आया हूँ और यास की तह तक डूब चुका हूँ दूर हूँ अपनी खोज से अब तक कब से ख़ुद को ढूँड रहा हूँ मैं हूँ ये घटता फैलता साया मैं ये कैसे हो सकता हूँ वक़्त के सय्याल आईने में कौन है किस को देख रहा हूँ दिल के किसी पिन्हाँ गोशे में अन-जानी कोई हार छिपी है जान तपाक हैं तेरी बातें मैं बे-बात भटक जाता हूँ देखते देखते तेरा चेहरा और इक चेहरा बन जाता है इक मानूस मलूल सा चेहरा कब देखा था भूल गया हूँ इक लम्हे ने मुझ से कहा था तू ही अज़ल है तू ही अबद है लम्हा बीता बात गई इस ख़्वाब से कब का चौंक उठा हूँ दीदा-ए-वा के दमकते ख़्वाबो मेरे साथ चलोगे कब तक तुम कि वफ़ूर-ए-रंग-ओ-नवा हो मैं कि शिकस्त-ए-दिल की सदा हूँ ख़ाक उड़ती है लब-बोसी को तारे आँख को छू लेते हैं क़ुर्ब का ख़्वाहाँ मुझ से ज़माना मैं तन्हा हूँ मैं तन्हा हूँ