तरीक़-ए-इश्क़ में देखा है क्या कहें क्यूँ-कर हमारी आँख खुली है मक़ाम-ए-हैरत में अगर ख़लल है तो ज़ाहिद मिरे दिमाग़ में है हज़ार शुक्र नहीं है फ़ुतूर निय्यत में बुलंद ओ पस्त की उस के कुछ इंतिहा ही नहीं अजीब चीज़ है इंसान भी हक़ीक़त में ये बज़्म-ए-ग़ैर है 'कैफ़ी' किधर गए हैं हवास कहाँ तुम आ गए क्या आ गई तबीअत में