तर्क की जाएगी मुद्दत की रिफ़ाक़त कैसे छोड़ देगी मुझे तू ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त कैसे उन से पुर्सिश है मिरे ख़ूँ की नदामत मुझे है मुँह पर अब डाल लूँ दामान-ए-क़यामत कैसे रोज़ इक ताज़ा सितम रोज़ नई एक जफ़ा कहते हो लब पे तिरे आई शिकायत कैसे ख़ाना-ए-दिल से कभी उस ने निकाले नहीं पाँव मरते दम निकलेगी देखूँ मिरी हसरत कैसे जोश पर हैं वो उमंगें हैं जवानी की है मौज देख कर उन को न लहराए तबीअत कैसे ज़िक्र-ए-तारीकी-ए-क़ब्र आया कि ये याद आई भूले दिल से शब-ए-फ़ुर्क़त की मुसीबत कैसे चाल उड़ा ली है जो तेरी तो फ़लक पर है दिमाग़ नाज़ उश्शाक़ से करती है क़यामत कैसे अपनी नादारी पे क्यों दाग़ लगाए तू ने ते पे रख छोड़े हैं दो नुक़्ते ये उसरत कैसे ज़ब्ह के वक़्त भी मुँह मुझ से वो फेरे ही रहे देख लेता है किसी की कोई सूरत कैसे शौक़ फिर मुझ को मदीने का हुआ ऐ 'अकबर' देखिए होती है रौज़े की ज़ियारत कैसे