तर्क उन से रस्म-ओ-राह-ए-मुलाक़ात हो गई यूँ मिल गए कहीं तो कोई बात हो गई दिल था उदास आलम-ए-ग़ुर्बत की शाम थी क्या वक़्त था कि तुम से मुलाक़ात हो गई ये दश्त-ए-हौल-ख़ेज़ ये मंज़िल की धुन ये शौक़ ये भी ख़बर नहीं कि कहाँ रात हो गई रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से जब मिल गए तो पुर्सिश-ए-हालात हो गई ख़ू बू रही सही थी जो मुझ में ख़ुलूस की अब वो भी नज़्र-ए-रस्म-ए-इनायात हो गई दिलचस्प है 'सलीम' हिकायत तिरी मगर अब सो भी जा कि यार बहुत रात हो गई