तर्क-ए-तअल्लुक़ात पे रोया न तू न मैं लेकिन ये क्या कि चैन से सोया न तू न मैं हालात के तिलिस्म ने पथरा दिया मगर बीते समों की याद में खोया न तू न मैं हर चंद इख़्तिलाफ़ के पहलू हज़ार थे वा कर सका मगर लब-ए-गोया न तू न मैं नौहे फ़सील-ए-ज़ब्त से ऊँचे न हो सके खुल कर दयार-ए-संग में रोया न तू न मैं जब भी नज़र उठी तो फ़लक की तरफ़ उठी बर-गश्ता आसमान से गोया न तू न मैं