तर्क-ओ-तलब के हंगामों को इश्क़ समझना वहशत है इश्क़ तहय्युर बे-पायाँ है इश्क़ मुजस्सम हैरत है तुम तो यक़ीनन जानते होगे वाक़ई क्या ये हक़ीक़त है अक्सर लोग कहा करते हैं इश्क़ बड़ा बद-क़िस्मत है क़ाफ़िले वालो ना-वाक़िफ़ हो शायद इन असरार से तुम राह-ए-तलब में गाहे-गाहे गुमराही भी ने'मत है हम दीवाने क्या बतलाएँ हम से न पूछो क्यों यारो हर तहज़ीब की मेहराबों में ख़ून-ए-बशर की रंगत है फ़िक्र नहीं है उस उंसुर का नाम मोहब्बत है शायद जिस से तहज़ीबें बनती हैं जिस से ज़ीस्त इबारत है रात ने साज़-ए-मह-ओ-अंजुम पर कितनी लोरियाँ छेड़ी हैं जी करता है अब सो जाएँ ऐ ग़म-ए-हिज्र इजाज़त है दुनिया को इरफ़ान-ए-मोहब्बत देने वालों में 'हैरत' जाने कितने लोग हैं जिन को अपने आप से नफ़रत है