तस्वीर-ए-दोस्त फ़िक्र-ए-मुजस्सम बनी रही मैं उस से बोलता रहा वो सोचती रही कल शब तसव्वुरात की महफ़िल सजी रही जब तक तुम्हारा ज़िक्र रहा चाँदनी रही शायद समझ रही थी उसे भी कोई चराग़ जुगनू के पीछे तेज़ हवा दौड़ती रही पानी का इंतिज़ाम था ग़ैरों के हाथ में यूँ भी घरों में आग हमारे लगी रही पूरी हुई न सर को कटाने की आरज़ू काँधों पे मेरे दिल की तमन्ना रुकी रही फिर अगली जंग लड़ना मगर इस शिकस्त में ये सोचना पड़ेगा कहाँ क्या कमी रही थी उन को सिर्फ़ एक नज़र देखने की बात जो हर्फ़-ए-आख़िरी की तरह आख़िरी रही उल्फ़त में हार जीत का लगता नहीं पता वो शर्त जो लगी भी नहीं थी लगी रही 'सौलत' कमी तुम्हारी अगर है तो मान लो कब तक यही कहोगे कि क़िस्मत बुरी रही