तस्वीर से कभी तो कभी ख़ुद से बात की तुझ से बिछड़ के मैं ने यूँही दिन से रात की अब तक तमाम दर्द-ओ-अलम मिल चुके मुझे अब मुझ पे इंतिहा है तिरे इल्तिफ़ात की जब मुस्कुराएगा तो जहाँ मुस्कुराएगा तक़दीर बन चुका है कोई काएनात की ये और बात मैं ही उन्हें देखता रहा वो सामने भी आए तो कब मुझ से बात की बस जान लो वहीं से रह-ए-दोस्त आ गई जब इब्तिदा हो सिलसिला-ए-हादसात की ग़म से नजात मुझ को मिले किस तरह 'ज़ुहूर' कुछ फ़िक्र भी तो चाहिए राह-ए-नजात की