तवील रातों की ख़ामुशी में मिरी फ़ुग़ाँ थक के सो गई है तुम्हारी आँखों ने जो कही थी वो दास्ताँ थक के सो गई है मिरे ख़यालों में आज भी ख़्वाब अहद-ए-रफ़्ता के जागते हैं तुम्हारे पहलू में काहिश-ए-याद-ए-पास्ताँ थक के सो गई है गिला नहीं तुझ से ज़िंदगी के वो नज़रिये ही बदल गए हैं मिरी वफ़ा वो तिरे तग़ाफ़ुल की नौहा-ख़्वाँ थक के सो गई है सहर की उम्मीद अब किसे है सहर की उम्मीद हो भी कैसे कि ज़ीस्त उम्मीदी-ओ-ना-उमीदी के दरमियाँ थक के सो गई है न जाने मैं किस उधेड़-बुन में उलझ गया हूँ कि मुझ को 'राही' ख़बर नहीं कुछ वो आरज़ू-ए-सुकूँ कहाँ थक के सो गई है