तवील सोच है और मुख़्तसर लहू मेरा गराँ सफ़र में है ज़ाद-ए-सफ़र लहू मेरा वो रौनक़ें भी गईं उस के ख़ुश्क होते ही सजाता रहता था दीवार-ओ-दर लहू मेरा हर एक लम्हा मुझे ज़िंदगी ने क़त्ल किया तमाम उम्र रहा मेरे सर लहू मेरा दयार-ए-ग़ैर को महका गया हिना बन कर ये वाक़िआ' है रहा बे-हुनर लहू मेरा वो रूह थी जिसे अहद-ए-वफ़ा का पास न था कभी न छोड़ सका अपना घर लहू मेरा उजाल देंगे अँधेरों की ये जबीं इक दिन बिखेरता है कुछ ऐसे शरर लहू मेरा रवाँ है क़ाफ़िला-ए-फ़िक्र सू-ए-दश्त-ए-जुनूँ दिखा रहा है उसे रहगुज़र लहू मेरा रवानी लिखती रही जिन का नाम आठ पहर वहीं बहाया गया ख़ाक पर लहू मेरा न जाने कौन सी रुत आ गई 'उमीद' अब के छुपा न पाई मिरी चश्म-ए-तर लहू मेरा