तय हो सका न फ़ासला लम्बी उड़ान से मैं ढेर हो के रह गया आख़िर तकान से उस बे-गुनह की चीख़ ने क्या कुछ नहीं कहा पर लोग छुप के देख रहे थे मकान से तूफ़ान-ए-सद-ज़वाल से कश्ती बचाइए ख़तरा न टलने वाला है ये बादबान से रिश्तों की भीड़-भाड़ से वो भी अलग हुआ मैं भी नजात पा गया वहम-ओ-गुमान से जी चाहता है सारी थकन ओढ़ लूँ 'सहर' आख़िर मैं और कितना लड़ूँ जिस्म ओ जान से