तेरा ही निशान-ए-पा रहा हूँ मैं ये पहाड़ जो उठा रहा हूँ मैं एक उम्र की मुनाफ़रत के बाद अब तुझे समझ में आ रहा हूँ मैं तो उधर से आ जिधर रुके हैं सब दूसरी तरफ़ से आ रहा हूँ मैं एक पल कभी तो थम मिरे लिए सारी उम्र दौड़ता रहा हूँ मैं मेरी ना-रसाइयों की हद है ये अपने सामने से आ रहा हूँ मैं