तेरा होना नहीं खुला मुझ पर लानतें भेज ऐ ख़ुदा मुझ पर कोई भी ठीक से बताता नहीं कैसा गुज़रा है सानेहा मुझ पर बाग़ वीराना होने लगता है रंग खुलते हैं इस तरह मुझ पर इन निगाहों ने सरसरी देखा और इक सेहर छा गया मुझ पर एक लम्हे ने मेरे अपनों को हँसते हँसते रुला दिया मुझ पर फ़ुहश बकता हूँ आड़ में सच की थोप दोगे ये तज्ज़िया मुझ पर