तेरे हाथों जो सर-अफ़राज़ हुए हम से किस बात में मुम्ताज़ हुए क्या वो दस्तक से न खुल सकते थे हम पे ठोकर से जो दर बाज़ हुए शाम तक उन का निशाँ भी न रहा सुब्ह जो महव-ए-तग-ओ-ताज़ हुए क्या बनेंगे वो किसी के हमराज़! ख़ुद जो अपने लिए इक राज़ हुए क्या तमस्ख़ुर है कि 'राशिद' हम भी कुछ न होने से सुख़न-साज़ हुए