तेरे लिए सब छोड़ के तेरा न रहा मैं दुनिया भी गई इश्क़ में तुझ से भी गया मैं इक सोच में गुम हूँ तिरी दीवार से लग कर मंज़िल पे पहुँच कर भी ठिकाने न लगा मैं वर्ना कोई कब गालियाँ देता है किसी को ये उस का करम है कि तुझे याद रहा मैं मैं तेज़ हवा में भी बगूले की तरह था आया था मुझे तैश मगर झूम उठा मैं इस दर्जा मुझे खोखला कर रक्खा था ग़म ने लगता था गया अब के गया अब के गया मैं ये देख मिरा हाथ मिरे ख़ून से तर है ख़ुश हो कि तिरा मद्द-ए-मुक़ाबिल न रहा मैं इक धोके में दुनिया ने मिरी राय तलब की कहते थे कि पत्थर हूँ मगर बोल पड़ा मैं अब तैश में आते ही पकड़ लेता हूँ पाँव इस इश्क़ से पहले कभी ऐसा तो न था मैं